काहे दूर जाए बंदे,
प्रभु तेरे पास में,
प्रभु तेरे पास में,
प्रभु तेरे पास में,
काहे दूर जावे बंदे,
प्रभु तेरे पास में।।
जमीं असमान माही,
उनका मुकाम नाही,
प्रगट निशान नाही,
जल थल वास में,
काहे दूर जावे बंदे,
प्रभु तेरे पास में।।
जंगल पहाड़ भारे,
नदियां समुंदर सारे,
देखले निहार प्यारे,
मिले ना तलाश में,
काहे दूर जावे बंदे,
प्रभु तेरे पास में।।
नाभी में सुगंध धारी,
फिरे मृग दूर चारी,
जाने बिना भेद भारी,
सूंघत है घास में,
काहे दूर जावे बंदे,
प्रभु तेरे पास में।।
फूलन में बास जैसे,
घट घट वास वैसे,
‘ब्रम्हानंद’ ख़ास तैसे,
तन परकाश में,
काहे दूर जावे बंदे,
प्रभु तेरे पास में।।
काहे दूर जाए बंदे,
प्रभु तेरे पास में,
प्रभु तेरे पास में,
प्रभु तेरे पास में,
काहे दूर जावे बंदे,
प्रभु तेरे पास में।।
स्वर – रमेश जी दाधीच।
रचना – ब्रम्हानंद जी।