माया में मन अपना,
जो फांसे से रहते है।
दोहा – माया चार प्रकार की,
एक बिलसे एक खाए,
एक मिलावे हरि को,
एक नरक ले जाए।
माया में मन अपना,
जो फांसे से रहते है,
रहकर भी समंदर में,
वो प्यासे रहते है।।
माया तो दासी है,
संतों का कहना है,
पर आज के इंसा का,
माया ही गहना है,
दलदल में जीवन को,
जो धांसे रहते है,
रहकर भी समंदर में,
वो प्यासे रहते है।bd।
हीरा भी पत्थर है,
गर चमक नहीं उसमें,
इंसान पशु समझो,
ना समझ रही जिसमें,
पल या दो पल बनके,
वो तमाशे रहते है,
रहकर भी समंदर में,
वो प्यासे रहते है।bd।
नफरत निंदा चुगली,
भक्तों जो करते है,
यह समझ लो वो बंदे,
जीते ना मरते है,
उनके हरदम खाली,
फिर कांसे रहते है,
रहकर भी समंदर में,
वो प्यासे रहते है।bd।
माया मे मन अपना,
जो फांसे से रहते है,
रहकर भी समंदर में,
वो प्यासे रहते है।।
गायक – कुमार विशु जी।
प्रेषक – डॉ सजन सोलंकी।
9111337188