क्षमा करो तुम मेरे प्रभु जी,
अब तक के सारे अपराध,
धो डालो तन की चादर को,
लगे है उसमे जो भी दाग।।
तुम तो प्रभु जी मानसरोवर,
अमृत जल से भरे हुए,
पारस तुम हो इक लोहा मैं,
कंचन होवे जो ही छुए,
तज के जग की सारी माया,
तुमसे कर लूँ मैं अनुराग,
धो डालो तन की चादर को,
लगे है उसमे जो भी दाग।।
काम क्रोध में फंसा रहा मन,
सच्ची डगर नहीं जानी,
लोभ मोह मद में रहकर प्रभु,
कर डाली मनमानी,
मनमानी में दिशा गलत लें,
पहुचा वहाँ जहाँ है आग,
धो डालो तन की चादर को,
लगे है उसमे जो भी दाग।।
इस सुन्दर तन की रचना कर,
तुमने जो उपकार किया,
हमने उस सुन्दर तन पर प्रभु,
अपराधों का भार दिया,
नारायण अब शरण तुम्हारे,
तुमसे प्रीत होए निज राग,
धो डालो तन की चादर को,
लगे है उसमे जो भी दाग।।
क्षमा करो तुम मेरे प्रभु जी,
अब तक के सारे अपराध,
धो डालो तन की चादर को,
लगे है उसमे जो भी दाग।।
स्वर – अनूप जलोटा जी।
प्रेषक – सम्पत जी दाधीच।